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खोरठा हमारी- मातृभाषा


खोरठा के लिए खोरठा लिपि ही क्यों ?

किसी भाषा की कतिपय अपनी विशिष्ट ध्वनियाँ होती हैं। उन विशिष्ट ध्वनियों को किसी अन्य भाषा के लिए प्रयुक्त लिपि में अंकित करना कठिन होता है। यानी उधार की लिपि में किसी भाषा के लेखन-पठन में मानकर चलने की विवशता आ जाती है। यदि जो लिखा जाये वही पढ़ा जाये की आदर्श स्थिति की अपेक्षा करना है तो उस भाषा की पृथक व स्वतंत्र लिलि की आवश्यकता पड़ती है। खोरठा सहित झारखंडी भाषाओं में कुछ विशिष्ट ध्वनियाँ विद्यमान हैं जो भारत की अन्य भाषाओं में प्रायः दुर्लभ है। यद्यपि खोरठा भाषा को अंकित करने में नागरी लिपि के व्यवहार को सर्वाधिक मान्यता मिली है किंतु हमारी सभी ध्वनियों को नागरी लिपि उदभाषित करने में सक्षम नहीं है। ऐसी स्थिति में हमें मान कर चलने की विवशता उत्पन्न होती है। इस विवशता में कई समस्याएँ हैं, जहाँ लेखन में वर्त्तनीगत अराजकता वहीं पाठगत अनेकरूपता। एक लेखक अपनी भाषा की विशिष्ट ध्वनियों के लिए नागरी की जिन ध्वनियों का व्यवहार करता है, वहीं दूसरा लेखक कुछ और ध्वनियों का। इससे सामान्य पाठक को पाठ वाचन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

इन्ही कठिनाईयों के चलते झारखंडी भाषाओं हेतु कइयेक नये लिपि बनाये गये जैसे ओलचिकी, बारांगचिति, ओलसिकी, आदि। खोरठा लेखन हेतु डॉ0 नागेश्वर महतो ने ’खोरठा लिपि’ का आविष्कार किया जो प्राचीन ’खरोष्ठी’ लिपि से मेल खाती प्रतीत होती है। इस लिपि की पहली पूस्तक ’खोरठा भाषा ज्ञान’ का लोकार्पण विनोबा भावे विश्वविद्यालय के तत्कालिन कुलपति डॉ0 बहुरा एक्का ने किया था। इस लिपि में कुछ रचनाएँ ’लुआठी’ में प्रकाशित हुई हैं परन्तु इसे खोरठा भाषा हेतु विशेष लिपि की मान्यता मिलना बाकी है।

खोरठा भाषा लेखन हेतु सर्वाधिक नागरी लिपि का प्रयोग हो रहा है और यही सर्वमान्य भी है। वैसे खोरठा भाषा की कुछ रचनाएँ बंगला लिपि में भी प्रकाशित हैं जैसे जीतुलाल शर्मा और भवप्रितानंद ओझा, चामु कामार की रचनाएँ बंगला लिपि में हैं शायद इसलिए कि ये रचनाकार मुलतः बंगला में ही रचना किया करते थे और इनकी कुछेक रचनाएँ खोरठा में भी हैं अतः इनकी खोरठा रचनाओं को भी बंगला संकलन में शामिल कर लिया गया है।

झा-चतुभुर्ज की पुस्तक ’खोरठा-सदानी भाषा-संस्कृति के विभिनन्न पहलुओं पर विचार’ में’ सदानी-खोरठा हिन्दी, बंगला, एवं अंग्रेजी के लिये प्रयुक्त लिपियाँ क्या सक्षम हैं?’ लेख में लिखा है, ’ ..वस्तुत‘ इसके अपने मौलिक उच्चारणों के संवाहक वर्णों से बनी लिपि का प्रयोग यदि खोरठा के लेखन उच्चारण के लिए हो तो वह उपादेय रूप में वैज्ञानिकता को प्रदर्शित करेगा..।’

लिपि पर डॉ0 बी0 एन0 ओहदार अपनी पुस्तक ’खोरठा भाषा एवं साहित्य (उद्भव एवं विकास)’ मे लिखते हैं, ’...गोटे दुनियाइएक भासाक मूल ध्वनि गुला तो मोटा-मोटी एके हबे करे। तबे भासा भासाक माझें महज गनतीक गइगो ध्वनिक फरक हव-हे। बाकी ध्वनि स्तर पर गोटे दुनियाएक भासा एक। एहे सोइच के दुनआइएक पइत भासा लागिन आपन लिपि नाञ पावा हे। आर एके लिपिं कइ-कइ गो भासा के उखरावल बा लिखल जाहे। जइसे कि रोमन लिपि के अंग्रजी समेत यूरोप के मोटा-मोटी सब भासा आपन लिपिक रूपें आपनवल हथ। सइ रकम नागरी लिपि के हिन्दी समेत भारतेक ढइर आधुनिक भासा गुला अपनावल हथ।’

ओहदार जी खोरठा के विशिष्ट ध्वनियों का विवेचन करने के पश्चात अंततः खोरठा लेखन में नागरी लिपि को ज्यादा उपयुक्त मानते हैं। उनके अनुसार इसके लिए किसी विशेष चिन्ह के प्रयोग की भी आवश्यकता नहीं है। वे अपने तर्क को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं,’....स्नतकोत्तर जनजातीय भाखा के प्रोफेसर गिरधारी गंझू, बी0 एन0 ओहदार समेत आरो-आरो लोकेक मत हइन कि ई लुकाइल ध्वनि के कोन्हों संकेतें देखवेक दरकार नाञ जे खोरठा नाञ् जाने से खोरठा लीखे जाने इटाँइ मगज मारेक दरकान नाञ्। जे खोरठा भाखी हतइ ऊ पइढ़ लेतइ। जे खोरठा नाञ् जाने से खोरठा सीखे, जाने इटाँइ मगज मारेक दरकार नाञ्।’ उनका स्पष्ट विचार है कि जहाँ इस आधुनिकता के दौड़ में खोरठा जैसी भाषाएँ अपनी अस्तित्व के लिए संघर्षरत है, वहाँ नये लिपि में मगजमारी इस भाषा आंदोलन को काफी पिछे ढकेल देगी और हमारा साहित्य लेखन का रास्ता अवरूद्ध हो जायेगा। खोरठा लेखन हेतु नागरी लिपि पर्याप्त है। उनका विचार है कि नागरी लिपि में खोरठा पठन में जो दिक्कतें महसुस की जा रही है वह केवल नागरी माध्यम से हिन्दी, संस्कृत के पठन के पूर्वाभ्यास के कारण है। खोरठा भाषी को इसमें तनिक ही दिक्कत होगी और वह सामान्य रूप से खोरठा पढ-लिख लेंगें। वे बड़े बेरूखी से कहते हैं,’ जो खोरठा भाषी होगा वह पढ़ ही लेगा। जो खोरठा नहीं जानता वह खोरठा सीखे, इसमें माथा-पच्ची करने का दरकार नहीं है।

वर्तमान समय में देवनागरी लिपि को ही सर्वग्राह्य लिपि मान लिया गया है और लिपि पर मगजमारी में चंद लोग ही लगे हुए हैं।


khortha.in के सौजन्य से

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