समय दे रहा क्यों मानव को धोखा।
हो रहे
हताहत लोग जाने क्या होगा?
संकट
का बादल छा रहा मनुज के सर।
महि डोल रही है देखो कहीँ कहीँ पर
काल दे
रहा सबको आमंत्रण है।
छा रहा
महिं पर लगता महामरण है।
कई बार
हिल उठी धरा सबने देखा।
क्या खत्म
हो जायेगी धरती की जीवन रेखा?
लेकिन
प्रकृति की है बात बड़ी निराली।
रहेगी
नही यह धरा ज़ीव से खाली।
कहती
छेड़ नही मुझको, मैं तुझको जीने दूंगी।
तुम हो
मेरे संतान कैसे मैं मरने दूंगी?
पर
क्या करूँ दूषित हो जाता हूँ तेरे कारण।
जिसके
कारण छाता है तुझ पर महामरण।
पर हाय
दोष न तनिक है इसमें मेरा।
दोष दे
रहा मुझे क्यों मन ये तेरा?
देता
हूँ में तभी काल को आमंत्रण।
जब
होता नही है मुझ पर मेरा नियंत्रण।
समतुल्य
बना जब मुझे काल जाता है।
नई
उमंग फिर मुझ में भर आता है।
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