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धरती की पुकार

ओ मंडराते काले बादल,
         बिन बरसे मत जाना रे
लगी आँख है राह तुम्हारे
        आकर प्यास बुझाना रे 

बहा रही हे आँसु मिट्टी
           अँकुर कितने सूख गए
बन कर काल सूर्य की धरने
           जन स्मित को लील गए।
हे नीरद है विनती,लोटा दे तू
          अब इनका मुस्काना रे
ओ काले मंडराते बादल
          बिन बरसे मत जाना रे।

केवल आँसु ही आँसु हें
           अब इनके गलियारों में
खो गये हें सुख सारे इनके
            इस हरारत के अँधियारों में
शूल हरो संताप हरो
          हर लो इनका घबराना रे
ओ मंडराते काले बादल
          बिन बरसे मत जाना रे।

लोटा दो इनका मंदहास
         आनन्द धूल में लिपटा है
हरियावल चित्त ने इनके
           केवल घाम समेटा हे
सोख स्वेदजल तू इनका
        झंझा अपनी बरसाना रे
ओ मंडराते काले बादल
           बिन बरसे मत जाना रे।

कृषक सभी अम्बर ताके
          नन्ही कलियाँ मुरझाई है
खुशियाँ नही किसी सूरत पर
        न ही  उसकी परछाई है
है स्वागत हे अभ्र तुम्हारा
         पर धीरे-धीरे आना रे
ओ मंडराते काले बादल
           बिन बरसे मत जाना रे।

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