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Showing posts from January, 2016

आँख के आंसू

आँख  के  आँसू ढ़लकता देखकर जी तड़प कर के हमारा रह गया क्या गया मोती किसी का है बिखर या हुआ पैदा रतन कोई नया || ओस की बूँदें कमल से है कहीं या उगलती बूँद है दो मछलियाँ  या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी खेलती है खंजनों की लड़कियाँ || या जिगर पर जो फफोला था पड़ा फूट कर के वह अचानक बह गया हाय था अरमान, जो इतना बड़ा आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया || पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ यों किसी का है निरालापन भया दर्द से मेरे कलेजे का लहू देखता हूँ आज पानी बन गया || प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी वह नहीं इस को सका कोई पिला प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला || ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो वह समझते हैं सफर करना इसे आँख के आँसू निकल करके कहो चाहते हो प्यार जतलाना किसे || आँख के आँसू समझ लो बात यह आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े || हो गया कैसा निराला यह सितम भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया यों किसी का है नही खोते भरम आँसुओं तुमने कहो यह क्या किया ||

सरिता

किसे खोजने निकल पड़ी हो, जाती हो तुम कहा चली। ढली रंगतों में हो किसकी, तुम्हें छल गया कौन छली ।। क्यों दिन रात अधीर बनी सी, पड़ी धरा पर रहती हो । दु:सह आतप शीत वात सब दिनों किस लिये सहती हो ।। कभी फैलने लगती हो क्यों, कृश तन कभी दिखाती हो। अंग भंग कर कर क्यों आपे, से बाहर हो जाती हो ।। कौन भीतरी पीड़ाएँ, लहरें बन ऊपर आती हैं। क्यों टकराती ही फिरती हैं, क्यों काँपती दिखाती है ।। बहुत दूर जाना है तुमको, पड़े राह में रोड़े हैं। हैं सामने खाइयाँ गहरी, नहीं बखेड़े थोड़े हैं ।। पर तुमको अपनी ही धुन है, नहीं किसी की सुनती हो। का टों में भी सदा फूल तुम, अपने मन के चुनती हो।। उषा का अवलोक वदन, किस लिये लाल हो जाती हो। क्यों टुकड़े टुकड़े दिनकर की, किरणों को कर पाती हो।। क्यों प्रभात की प्रभा देखकर, उर में उठती है ज्वाला। क्यों समीर के लगे तुम्हारे, तन पर पड़ता है छाला।।

संध्या

दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला । तरु शिखा पर थी अब राजती, कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा ।। विपिन बीच विहंगम वृंद का, कल निनाद विवर्धित था हुआ । ध्वनिमयी विविधा विहगावली, उड़ रही नभ मंडल मध्य थी ।। अधिक और हुई नभ लालिमा, दश दिशा अनुरंजित हो गयी। सकल पादप पुंज हरीतिमा, अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई ।। झलकते पुलिनो पर भी लगी, गगन के तल की वह लालिमा । सरित और सर के जल में पड़ी, अरुणता अति ही रमणीय थी।। अचल के शिखरों पर जा चढ़ी, किरण पादप शीश विहारिणी। तरणि बिंब तिरोहित हो चला, गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।। ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा, कलित कानन केलि निकुंज को। मुरलि एक बजी इस काल ही, तरणिजा तट राजित कुंज में।।

प्रेम गीत

हे प्रिय, मुझको प्यार करने दे, हे प्रिय, मुझको प्यार करने दे।। तू है मेरे मन की राधा, अंग हमारी तू है आधा || कमी प्रीत की नहीं है मन में प्यार करूँगा हद से ज्यादा || मैं  भंवरा तू कली है गोरी मँडराने दे थोड़ी थोड़ी || तेरे प्रेम अगन में मुझको जलने दे, हे प्रिय मुझको प्यार करने दे हे प्रिय मुझको प्यार करने दे |  प्रेम तेरा है मेरे नस नस में, मन है मेरा तेरे ही बस में | कैसे चीर दिखाऊँ सीना, मैं  कोई हनुमान नहीँ हूँ | तस्वीर ह्रदय में तेरा ही है, मैं  कोई भगवान नहीँ हूँ |

धरती की पुकार

ओ मंडराते काले बादल,          बिन बरसे मत जाना रे लगी आँख है राह तुम्हारे         आकर प्यास बुझाना रे  बहा रही हे आँसु मिट्टी            अँकुर कितने सूख गए बन कर काल सूर्य की धरने            जन स्मित को लील गए। हे नीरद है विनती,लोटा दे तू           अब इनका मुस्काना रे ओ काले मंडराते बादल           बिन बरसे मत जाना रे। केवल आँसु ही आँसु हें            अब इनके गलियारों में खो गये हें सुख सारे इनके             इस हरारत के अँधियारों में शूल हरो संताप हरो           हर लो इनका घबराना रे ओ मंडराते काले बादल           ...

भोले भाले बादल (बाल कविता )

मन से भोले भाले होते        बादल काले काले होते कुछ रहते हें मुँह लटकाये      कुछ तो देखो तोंद फुलाए आसमान में दौड़ा करते        बरसा थोड़ा थोड़ा करते देखो बच्चों को धमकाए      ...

अमर प्रेम

भागीरथी की जलधार है तू शत-स्वर्ण मोती अपार है तू क्षीर सागर का कमल दल सा अनघ उपहार है तू है प्रिये मेरा प्यार है तू। नहीं में सजल भ्रम पालता हुँ सत्य को में जानता हुँ तु अर्चना की शुभ्र ज्योति तू इश को भी देती चुनोती वट वृक्ष सा विस्तार है तू है प्रिये मेरा प्यार है तू। तु सार जीवन का  है मेरे उपकार जीवन का है मेरे यथार्थ मेरे जानने का गीत मेरे मानने का सब सबल आधार है तू है प्रिये मेरा प्यार है तू

अत्याचारी मनुष्य

अधोलोक में भी हे मनुज, हाथ तुम फेरो भवित्वयता छुपी है जहाँ वहीं तुम टेरो क्या बैठे हो यहाँ नहीँ कल तेरा है कुत्सित कलंक का केवल डेरा है झकझोरो अपने सोये हुए भंवर को करो सफल तुम अपने अग्र डगर को यह जगह तो केवल उस अभिमानी का है तेरे आँखों से बहते हुए विवश पानी का हे हे कार्य प्रवंचक उसका, केवल छलता है शठ इसी मार्ग पर सदा गमन करता है कुछ और नहीं, बस हाल मेरा तुम देखो विश्वास नहीं तो पासा दूसरा फेंको दुर्दान्त दस्यु को सेल हुलते हें हम यम द्रंष्टा से खेल झूलते हें हम वैसे तो कोई बात नहीँ कहने को हें इसमें मजबूर सिर्फ सहने को पहली आहुति है अभी,यज्ञ चलना है इसी अनल में क्या सबको जलना है जब ह्रदय-ह्रदय पावक से भर जायेगा इक दिन सारा पाप उतर जायेगा यह नहीं कथा किसी और की, अभिमानी का है उस दुष्ट, क्रूर,कायर,कृतघ्न बेईमानी का है

आरक्षण

😭आरक्षण😭 की जीतोड़ पढ़ाई, नाता    जुड़ता फिर भी बेकारी से प्रतिभावान कटा जाता है         आरक्षण की आरी से। नहीँ नियोजन होता उसका         प्रतिभा हो कितनी चाहे। इम्तिहान मे...